Bhartiya Bhasha, Siksha, Sahitya evam Shodh

  ISSN 2321 - 9726 (Online)   New DOI : 10.32804/BBSSES

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विदेशी कलेवर में भारतीयता : अर्चना पैन्यूली

    1 Author(s):  DR. SUDHANSHU KUMAR SHUKLA

Vol -  10, Issue- 1 ,         Page(s) : 11 - 15  (2019 ) DOI : https://doi.org/10.32804/BBSSES

Abstract

यूरोप प्रवास (पोलैंड) में हिंदी भाषा और साहित्य को नए सिरे से देखने का अवसर मिला है। यह देख पढ़कर आश्र्वस्ति का भाव प्रगाढ़ हुआ है कि हिंदी की भाषायी और साहित्यिक ताकत समाज में प्रभावी स्थान बनाए हुए है। विशेषकर सुदूर सात समुद्र पार से प्रवासी साहित्यकार जो लेखन कर रहे हैं, वे समाजशास्त्र की शाश्वत तस्वीर प्रस्तुत करते दिखाई पड़ रहे हैं। प्रवासी साहित्यकारों की साहित्य-सृजन की प्रक्रिया में उनकी मूल आत्मा की रंगत देखने को मिलती है। डेनमार्क में हिंदी की ध्वजा उठा रहीं अर्चना पैन्यूली की कुछ कहानियों का पाठ बेहद रूचिकर लगा है। एक बिंब जो वर्षों से मूर्ति की एकरूपता में जकड़ा था। नानाविविध छवियों के साथ जिस तरह मूर्ति की महत्ता को स्थापित करता है, वह संवेदना की अनेक पर्तों को तोड़ कर भीतर उतर गया है। भारत से सुदूर पश्चिमी धरातल की पृष्ठभूमि को लेकर कहानी-लेखन में मील का पत्थर बनने वाली कहानीकार अर्चना पैन्यूली का नाम प्रवासी साहित्य में ही नहीं मानव जगत् की सूक्ष्म संवेदनाओं को जाहिर करने के कारण विश्व-साहित्य में उभर रहा है। उनकी कहानियों में 'माँ' शब्द के तमाम रूपों की झलक प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद और मन्नू भंडारी की याद दिलाती है। 18 कहानियों में विशेष्य 'माँ' के विभिन्न विशेषणों से सुशोभित धरती माँ, मदर बोर्ड, गौमाता, ऐमाँ, गे माँ, सासू माँ, कुँवारी माँ, सौतेली माँ, सेरोगेट माँ, फोस्टर माँ आदि आदि।

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