1. दादा भाई नौरौजी और रमेशचंद्र दत्त की पुस्तकें ब्रिटिश राज का आर्थिक विश्लेषण हंै, हिन्द स्वराज के दर्शन से संब) कुछ भी उनमें नहीं है। शेष सभी अठारह पुस्तकें दार्शनिक रचनाएं हैं जो सभी पश्चिमी चिंतकों की हैं।
2. गुजरात राजनीतिक परिषद् में भाषण, गोधरा, 3 नवंबर, 1917
3. उहारण के लिए देखें, ‘गुजरात राजनीतिक परिषद् में भाषण, 3 नवंबर 1917
4. चर्खें को ‘भविष्य के भारत की सामाजिक व्यवस्था’ का आधार बनाने की बात गाँधी 1940 में भी करते थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा की गई गुरु-गंभीर आलोचनाओं (देखें, इनका ‘‘स्वराज साधना’’ शीर्षक लेख) के बीस वर्ष बाद भी, बिना उसका कहीं उत्तर दिए।
5. ए. बी. पुराणी इविनिंग टाॅक्स विद श्रीअरविन्दो (पांडिचेरी: श्रीअरविन्द आश्रम, 1995), पृ॰ 52-53
6. उमा देवी, द वार: थ्री लेटर्स टु गाँधीजी (कलकत्ता: द कलकत्ता पब्लिशर्स, 1941), इसमें उन तीन पत्रों के अतिरिक्त उमादेवी द्वारा लिखित एक लंबा परिचय भी है।
7. देखें, रवीन्द्रनाथ के ‘सत्य का आह्नान’, ‘समस्या’, ‘स्वराज साधना’। यह सभी 1921-25 के बीच लिखे गए थे। यदि इन्हें पढ़कर संबंधित बिन्दुओं पर हिन्द स्वराज की वैचारिकता से तुलना करें तो गाँधीजी की रचना चिंतन और गहराई में निस्संदेह फीकी लगती है। रवीन्द्रनाथ के निबंध, भाग-1 (अनु॰ - विश्वनाथ नरवणे), (दिल्ली: साहित्य अकादमी, 2009, पुनर्मुद्रण)
8. इस सत्य को गाँधी सहित अनेक नेताओं, विचाराकों ने नोट किया था। चाहे राजनीतिक या अन्य कारणों से इस पर आवश्यक चर्चा नहीं होती थी। पर उसी कारण उसके लिए उपाय करने की चिंता नहीं हुई। यह गाँधी ने ही कहा था: ‘‘तेरह सौ वर्षों के साम्राज्यवादी विस्तार ने मुसलमानों को एक वर्ग के रूप में योद्धा बना दिया है। इसलिए वे आक्रमण होते हैं। ............ हिन्दुओं की सभ्यता बहुत प्राचीन है। हिन्दु मूलतः स्वभाव से अहिंसक होता है। इस प्रवृत्ति के कारण उनमें हथियारों का प्रयोग करने वाले कुछ ही होते हैं। उनमें आम तौर पर हथियारों के प्रयोग की प्रवृत्ति नहीं होती, जिसेसे वे कायरता की हद तक भीरू होते है।’’ (यंग इंडिया, 30 दिसंबर 1927)
9. राम मनोहर लोहिया, ‘‘गाँधीजी के दोष’’, समता और सम्पन्नता (इलाहाबाद: लोकभारती, 1992), सं॰ - ओंकार शरद पृ॰ 208
10. रवीन्द्रनाथ टैगोर, ‘समस्या’, रवीन्द्रनाथ के निबंध, भाग-1,(दिल्ली: साहित्य अकादमी, 2009)
11. लोहिया, ऊपर संदर्भ 9, पृ॰ 209
12. खिलाफत आंदोलन वाले दौर के बाद गाँधी ने स्वयं इन शब्दों का प्रयोग किया था। महादेवी भाई के समक्ष वर्ष 1924 में गाँधी कहते हैं, ‘मेरी भूल? हाँ मुझे दोषी कहा जा सकता है कि मैंने हिन्दुओं से विश्वासघात किया।...........’। वस्तुतः यह उन्होंने 1947 में पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल के हिन्दुओं के साथ और भी भयावह पैमाने पर किया। इसे विश्वासघात कहना इसलिए भी उचित है, क्योंकि 1917-18 में अंग्रेजी सेना के लिए सैनिक भर्ती कराने वाले दौर में गाँधी ने अत्याचार और बलात्कार से रक्षा हेतु शस्त्र उठाना उचित बताया था। (देखें, ‘‘गुजरात राजनीतिक परिषद् में भाषण’, गोधरा, 3 नवंबर 1917) किंतु वैसी ही परिस्थिति में, संगठित मुस्लिम गुंडा या भीड़ से रक्षा हेतु हथियार उठाने के विकल्प को ये साफ खारिज करते रहे।