Bhartiya Bhasha, Siksha, Sahitya evam Shodh
ISSN 2321 - 9726 (Online) New DOI : 10.32804/BBSSES
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समाज की विकृति का प्रतिक है पताखोर
1 Author(s): DR. SUDHANSHU KUMAR SHUKLA
Vol - 10, Issue- 4 , Page(s) : 14 - 16 (2019 ) DOI : https://doi.org/10.32804/BBSSES
मधु कांकड़िया का उपन्यास ‘पत्ताखोर’ सामाजिक विकृति का, सामाजिक चिंता का, सामाजिक विषमता का ग्रंथ कहना अतिश्योक्ति न होगा। भारतीय परिवेश में फैली इस सामाजिक विषमता की नींव ‘अर्थ’ ही है। अर्थ का अभाव अर्थ के पीछे भागने वाली अंधी दौड़ ने मनुष्य में जो असंतोष की लहराती सर्पिणी को जिम्मेदार ठहराया है। मधु कांकड़िया की चिंता अजगर की भाँति फैलती नशे की प्रवृति है। जिससे समाज का ताना-बाना बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है। 21वी. सदी का नया परिवेश अतिआधुनिकता का कलेवर पहने हुए मूल्यों में विघटित, बिखरता, टूटता और पछाड़े मारता दिखलाई पड़ता है।