Bhartiya Bhasha, Siksha, Sahitya evam Shodh

  ISSN 2321 - 9726 (Online)   New DOI : 10.32804/BBSSES

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योग के अधिगम की अवधारणा

    1 Author(s):  DR. KANCHAN MALA PANDIT

Vol -  11, Issue- 5 ,         Page(s) : 16 - 19  (2020 ) DOI : https://doi.org/10.32804/BBSSES

Abstract

भारतीय ज्ञान परंपरा में श्रीमद्भगवद्गीता प्रस्थान त्रयी में से एक घटक रही है। अपने सिद्धांतों को प्रमाणित करने के लिए आचार्यों ने गीता को एक प्रमाण ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया है। वास्तव में गीता महाभारत के भीष्म पर्व के 18 अध्यायों से ली गई है परंतु कालांतर में इसे एक स्वतंत्र ग्रंथ रूप में स्वीकार कर लिया गया। मनुष्य अपने जीवन में पुरुषार्थ से क्रमशः धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिए साधन करता है। धर्म पुरुषार्थ मनुष्य के जीवन निर्माण का आधार स्तंभ है। जीवन में जब ऐसे प्रश्न खड़े होते हैं जिनका उत्तर सामान्य मानस से प्राप्त नहीं होता तब गीता जीवन के धर्म ग्रंथ के रूप में समूल प्रश्नों का उत्तर देती है। गीता में ज्ञान योग, ध्यान योग, कर्म योग, भक्ति योग आदि विभिन्न साधन बताए गए हैं, इन साधनों में से व्यक्ति अपनी योग्यता, रुचि और श्रद्धा के अनुसार अपना कल्याण कर सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता 18 अध्यायों एवं 700 श्लोकों में वर्णित है। प्रथम 6 अध्यायों में कर्म योग का ज्ञान दिया गया है, उसके पश्चात दूसरे 6 अध्यायों में भक्ति योग की शिक्षा दी गई है, तत्पश्चात् अंतिम 6 अध्याय में ज्ञान योग का अधिगम कराया गया है।

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