Bhartiya Bhasha, Siksha, Sahitya evam Shodh

  ISSN 2321 - 9726 (Online)   New DOI : 10.32804/BBSSES

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ऋग्वैदिक आचारमीमांसा में कर्म का स्वरूप

    1 Author(s):  DR. RAMPHAL SHASTRI

Vol -  4, Issue- 4 ,         Page(s) : 135 - 141  (2013 ) DOI : https://doi.org/10.32804/BBSSES

Abstract

भारतीय ज्ञानपरम्परा में वर्णित पुरूषार्थ चतुष्टय के कर्मसिद्धान्त का विषिष्ट महत्त्व है। वैदिक समाज मे कर्म के महत्त्व पर प्राचीन समय में ऋषियों ने अपना मन्तव्य प्रस्तुत किया है। ऋग्वेद की ज्ञानमय वाणी में बार-बार कर्म के महत्त्व को स्वयं ऋषियों ने मन्त्रोचारण द्वारा उद्धाटित किया है। ऋग्वैदिक आचारमीमांसा में कर्मसिद्धान्त के संदर्भ में अनेक मन्त्र वर्णित है। वैदिक ज्ञान परम्परा में कर्मवादी चिन्तन का साक्षात्कार सर्वत्र दिखार्इ पड़ता है। वैदिक संस्कृति को ही कर्म संस्कृति के नाम से जाना जाता है।

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1. ऋग्वेदसंहिता (मूल), स्वाध्याय मण्डल, पारडी, सूरत।
2. ऋग्वेदसंहिता (सायणभाष्य), वैदिक संषोधन मण्डल, पूना।
3. ऋग्वेदसंहिता (दयानन्दभाष्य), वैदिक यन्त्रालय, अजमेर।
4. ऋग्वेद भाष्यभूमिका (सायणाचार्य), बलदेव उपाध्याय, चैखम्बा संस्कृत वाराणसी-1934
5. वैदिक दर्षन: डाॅ0 कपिलदेव द्धिवेदी, विष्वभारती, अनुसंधान परिषद्, ज्ञानपुर भदोही, उ0 प्रदेष
6. वैदिक साहित्य एवं संस्कृतिः डाॅ0 कपिलदेव द्विवेदी, विष्वविद्यालय प्रकाषन, वाराणसी चतुर्थ संस्करण - 2008।
7. वैदिक साहित्य और संस्कृति: आचार्य बलदेव उपाध्याय, शारदा संस्थान, वाराणसी पाँचवां सस्करण - 2006।

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