Bhartiya Bhasha, Siksha, Sahitya evam Shodh

  ISSN 2321 - 9726 (Online)   New DOI : 10.32804/BBSSES

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प्राचीन भारत में समन्वय की निरन्तरता

    1 Author(s):  DR. RAVINDRA BHARDWAJ

Vol -  4, Issue- 3 ,         Page(s) : 43 - 46  (2013 ) DOI : https://doi.org/10.32804/BBSSES

Abstract

भारतीय संस्कृति में समनिवत प्रतिमाओं का विषय विस्तृत एवं रूचिकर रहा है। गुप्त गुप्तोत्तर काल में मंदिरों में इनकी प्रधानता रही है। यह विषय विभिन्न सम्प्रदायों के प्रति अभिव्यकित का माध्यम भी है। दूसरे समुदायों के प्रति सहिष्णुता, र्इष्र्या और प्रतिस्पर्धा के साथ उनके सर्वोत्तम गुणों को स्वीकार करना यह प्रवृत्ति समकालीन कला, साहित्य, पौराणिक, ऐतिहासिक कथानक तथा अभिलेखों में दर्शित है। अन्य सम्प्रदायों के प्रति पूर्वाग्रह की भावना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है और यह इनके साहित्य तथा कला में अभिव्यक्त हुर्इ। इससे और अधिक हिन्दू, जैन एवं बौद्धों तथा अन्य समुदाय के बीच अपने समुदाय के असितत्व को बचाये रखने का संघर्ष भी दिखार्इ देता है। समनिवत प्रतिमाएँ अपनी समरस भावना की साकार अभिव्यकित है। गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल में दान पात्रों एवं अभिलेखों में अन्य धर्मों के प्रति उदारवादी दृषिटकोण स्पष्ट प्रदर्शित हुआ। इस युग के मूर्ति शिल्प और साहितियक प्रमाण यह प्रमाणित करते हैं कि प्राचीन भारतीय उदारवादी परम्परा की निरन्तरता बनी रही है जबकि नये सम्प्रदायों एवं धर्मों के विकास की अवस्था में एक संघर्षशीलता भी है।

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